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Friday, 21 November 2014

यही बात थी जो तुमने आखरी बार कहे थे


कुछ सूखे हुवे फूल किताबों मैं परे थे
कुछ याद आने लगा हम कहाँ और कब मिले थे।

वो रस्ते का चौराहा और गलियों का वीराना
ये शहर भी गवाह है के हम यहीं कहीं मिले थे।

आसमान ने भी टपकाए थे अपने पलकों से मोती
वो बरसात की शाम थी जब हम तुमसे मिले थे।

ठंडी हवाएं भी क्या पुरजोर चली थी
छतरी में सिमटे हुवे हम कुछ दूर चले थे।

वीराने में हम युहीं कुछ दूर चले थे
कुछ खास मोहब्बत के वो अंदाज अलग थे।

पैरों से जो ठंडक का एह्साह हुवा हमको
मगर सांसो की गर्मी थी और कुछ और चले थे।

बिजली के चमकने से बाँहों से लिपट जाना
वो हया की लाली थी जिसने कुछ और कहे थे।

जाने भी दो मुझो अब देर हो गयी
यही बात थी जो तुमने आखरी बार कहे थे।

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