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Wednesday, 2 September 2015

गिरके भी सम्भलने की क्या कोई इल्तेजा करता है

ज़िंदा हूँ अभी मैं शायद कोई मेरे लिए दुआ करता है
गिरके भी सम्भलने की क्या कोई इल्तेजा करता है 

ये तो कुछ ज़िम्मेदारियाँ है मुझपे सरे आम होने की
नही तो इस दुनिया में भी रहने की क्या कोई दुआ करता है 

बड़ा अहमक़ है ये इंसान, मगरूर और मक्कार भी
वजूद कुछ भी नही और जा बजा होने की दुआ करता है

लिखवा के शिजरा कब्र पे कभी कोई जावेद  हुआ
ये इंसान है की है  बस हर कुछ पाने की दुआ करता है

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